कुठानियां धाम मन्दिर का इतिहास

श्री देई माई, गुंगी माई का मन्दिर कब आस्तित्व में आया इसका कोई वास्तविक ठोस प्रमाण कहीं नही मिलता। इसके लिए दंत कथाओं के आधार पर सिर्फ यहीं तर्क दिया जाता रहा है कि जब गुरु गोरखनाथ जी महाराज नें श्री देई माई, गुंगी माई व क्षेतरपाल जी महाराज को कुठानियां धाम में विराजमान किया तब भादरियाराय माता के अनन्य भक्त श्री रघुवीर सिंह जी के भंवर पुत्र श्री चतर सिंह भाटी जो उस समय खेतङी महाराज के सेनापति थे, को सपनें में मैया ने दर्षन दिये और अमुक जगह (कुठानियां धाम) आकर जोत जगानें को कहा। कहा जाता है कि श्री चतर सिंह जी नें तभी आजीवन षादि ना करनें का प्रण लिया और माता के बतायें अनुसार जगह (कुठानिया धाम ) आकर स्नान कर, खाली पेट, बिना बोले मैया की पुजा अर्चना की व नित करते रहे।

उसके बाद बताया जाता है कि श्री चतर सिंह जी के छोटे भाई श्री त्रिलोक सिंह अपनें भाई से मिलनें जैसलमेर से उंट पर खेतङी जा रहे थे, जब वे कुठानियां धाम के नजदीक पहुंचे तो पिछे से नंगली सलेदी सिंह के डाकुओं ने उन्हें घेर लिया व उंट व जो कुछ उनके पास था वो देनें की बात कही। इस पर श्री ़ि़त्रलोक सिंह नें मैया का आवाहन कर अपनी तलवार निकालकर उनका सामना करनें लगे। काफी देर तक संघर्ष करने के बाद भी जब श्री त्रिलोक सिंह जी नें उन्हें न अपनां उंट दिया ना किसी को अपनें हाथ ही लगानें दिया, तो थककर डाकुओं नें उनसें सुलह करनें की बात कहीं। सुलह में श्री त्रिलोक सिंह भाटी को डाकुओं नें अपना मुखिया बना लिया, और यह तय किया गया की अमीरों से धन लूटकर इस ऐरिया के गरीब लोगों की सहायता की जावेगी और षेष प्राप्त धन से श्री देई मैया का मन्दिर बनाया जायेगा। कुछ समय बाद जब यह बात सेनापति श्री चतर सिंह जी को पता लगी तो उन्होनें श्री त्रिलोक सिंह जी को श्री देई माई मन्दिर में पूजा करके बाहर निकलते ही हीरासत में ले लिया व सगा भाई होनें पर भी खेतङी महाराज के समक्ष बंदी बना कर पेष कर दिया। खेतङी महाराज की रानी जैसलमेर के भाटी राजपुतों की बेटी थी। कहा जाता है कि रानी को मैया द्वारा यह दर्षाव दिया गया कि तुम्हारा भाई अपने सगे भाई द्वारा बंदी बना लिया गया है। तब रानी नें दर्षाव वाला वर्तान्त महाराज को बताया तो महाराज ने श्री चतर सिंह जी को बुलवाया व सब वर्तान्त पुछकर श्री त्रिलोक सिंह को बंदीग्रह से बाहर निकलवा लिया। उसी समय गांव कुठानियां के कुछ लोग राजदरबार पहुंचे और उन्होनें महाराज को बताया की किस तरह उनका क्षेत्र नंगली सलेदी सिंह ंके डाकुओं से भयभीत है। उन्होनें महाराज से श्री त्रिलोक सिंह को कुठानियां भेजनें व वही रहनें के लिए अर्जी लगाई। महाराज नें श्री ़ित्रलोक सिंह को सिंघानां के तहसिलदार पद पर नियुक्त किया व कुठानियां रहकर गंाव वालों की ऱक्षा करनें और मन्दिर निर्माण के कार्य को पूरा करनें को कहा। उस समय बना मन्दिर काफी बङा था व उसमें रखी मैया की मुर्ति भी काफी बङी थी, इसका अनुमान सन 2003 में महन्त श्री सुमेर सिंह जी द्वारा छेतरपाल जी महाराज के देवरे को दुरस्त करवानें के लिए करवाई गई खुदाई में मिलें सुदर्षन चक्र को देखकर लगाया जा सकता है। मैया के मन्दिर को व मुर्तियों को मुगल काल में तोङ दिया गया था। जिसका प्रमाण श्री छेतरपाल जी महाराज की मुर्ति को देखकर लगाया जा सकता है, जिसमें अभी भी चोटों के निषान ज्यों के त्यों मोजूद हैं।

उसके बाद श्री त्रिलोक सिंह जी के पुत्र श्री प्रताप सिंह जी व श्री हाथी सिंह जी खेतङी महाराज की सेना के सेनापति थे। श्री प्रताप सिंह जी को श्री देई माई द्वारा यह दर्षाया गया की अमुक जगह राजा षिकार पर जावेगा और उस समय झाङियों में छुपा षेर राजा पर हमला करेगा। श्री प्रताप सिंह जी नें यह बात अपनें भाई हाथी सिंह जी को बताई और महाराज के साथ षिकार पर जाते समय श्री प्रताप सिंह जी व श्री हाथी सिंह जी महाराज के बिलकुल पिछे पिछे थे, वो जैसे ही षेर के हमले वाले स्थान पर पहुंचे तो एकदम सर्तक हो गये और जैसे ही षेर नें झाङियों से निकलकर हाथी पर बैठे राजा पर हमला किया तो बताया जाता है कि श्री प्रताप सिंह जी द्वारा घोङे पर बैठे बैठेे ही एक ही वार में षेर के दो टुकङे कर दिये। महाराज नें खुष होकर श्री प्रताप सिंह भाटी को 1000 वीघा का बाड (जमीन) दिया, जिसमें अभी कुठानियां की सीमा से लगे अन्य गांव बसे हुए है, जो बाद में श्री प्रताप सिंह जी द्वारा गरीबों में बांट दिया गया। श्री चतर सिंह जी के समय से ही श्री देई माई की सेवा पूजा भाटी परीवार द्वारा की जा रही हैं, उस समय से मैया के चमत्कारों की कीर्ती काफी दूर दूर तक है।

बताया जाता है कि मैया के मन्दिर व मुर्तियों को धवस्त करनें वाले सभी मुसलमान व उनके बच्चें गुंगे हो गये। उसके बाद वो पुनः कुठानियां धाम आये ओर अपनें किये की मांफी मांगी तभी फिर से बोल पाये, इसीलिए हिन्दुओं के अलावा सिख व मुसलमानों की ओरतें भी मैया के दरबार में माथा टेकनें व अपने बच्चों की खुषहाली के लिए आती रहती हैं। श्री चतर सिंह जी के तहसीलदार व उनके बाद श्री प्रताप सिंह जी के सेनापति होनें से उस समय मैया के दरबार में आनें वाला चढावा मन्दिर निर्माण व अन्य धार्मिक कार्यों में लगता था, जिसका लेखा जोखा खेतङी रियासत में रखा जाता था। रियासतों के विलिनीकरण के बाद मन्दिर का चढावा खेतङी राजघरानें के वंषजों द्वारा बनाये गये ट्रस्ट ’’ षार्दुल एजुकेषनल ट्रस्ट ’’ झुन्झुनूं में जानें लगा। धिरे धिरे उक्त ट्रस्ट के पदाधिकारी चढावे का ठेका छोङनें लगे, जिसमें 2 या 3 साल के लिए मन्दिर का चढावा लेनें के लिए एक व्यक्ति से निष्चित राषि लेकर उसे अधिकृत कर दिया जाता था। मैया की सेवा पूजा से, मन्दिर जीर्णोधार से व श्रधालुओं की सुविधाओं हेतु उपरोक्त ट्रस्ट के पदाधिकारीयों को कोई सम्बंध सरोकार नहीं रहा। श्री प्रताप सिंह जी के वंषज श्री हरी सिंह जी नें भी आजीवन षादि नहीं करनें व मैया की सेवा पूजा करते रहनें का प्रण किया था। वो मन्दिर के पास ही कुटिया बनाकर रहते थे। उन्होनें ही लोगों से चंदा ईक्कठा कर मन्दिर के पास ही जोहङ (तालाब) खुदवाया। जो बाद में आस्था का केन्द्र बना।

श्री हरी सिंह जी भाटी द्वारा वर्तमान प्रन्यास अध्यक्ष महन्त श्री सुमेर सिंह जी को गोद लिया गया। महन्त श्री सुमेर सिंह जी अपनें दादा के साथ बचपन से मैया की सेवा पूजा में ध्यान लगानें लग गयें थे। उस समय कोई साधन नहीं होनें की वजह से श्री सुमेर सिंह जी नें पहाङ से अपनें सिर पर पत्थर ला ला के मैया के मन्दिर का निर्माण चालु रखा। उन्होनें अपने हाथों सेे श्रधालुओं के बैठनें के लिए चबुतरे बनवाये व पत्थरों के रास्ते बनवाये। चढावे से प्राप्त आय का कुछ हिस्सा मन्दिर विकास व श्रधालुओं की सुविधाओं व अन्य धार्मिक कार्यों पर लगवानें हेतु महन्त श्री सुमेर सिंह जी द्वारा ट्रस्ट पदाधिकारीयों से कई बार निवेदन किया गया। परन्तु उनके द्वारा कोई कार्य नहीं करवाया गया बल्कि चढावा ठेकेदारों द्वारा ज्यादा मुनाफा कमानें के चक्कर में श्रधालुओं को परेषान किया जानें लगा। करीब 35 साल तक ऐसे ही चलता रहा तब वर्ष 1993 महन्त श्री सुमेर सिंह ने मन्दिर चढावे से प्राप्त आय को मन्दिर में सेवा पुजा, भोग राग, मन्दिर विकास व श्रधालुओं की सुविधाओं हेतु खर्च करनें हेतु श्री देई माई प्रबन्ध व विकास समिती का रजिटेªषन करवाया और तत्कालीन ठेकेदारों को हटा कर समिती द्वारा मन्दिर विकास के कार्य किये जानें लगे।

वर्ष 1995 में समिती के तत्कालिन अध्यक्ष सरपंच पद के चुनाव में विजयी हुए और अपनी राजनैतिक पहुंच का फायदा उठाकर समिती सदस्यों को मन्दिर से हटवा दिया व चढावे की निलामी कर फिर से ठेकेदारी प्रथा लागु कर दी। महन्त श्री सुमेर सिंह नें अपने स्तर पर मन्दिर में हित रखनें वाले व्यक्तियों का समुह बनाकर एक संस्था बनाई और उसके द्वारा उक्त ठेकेदारी प्रथा का विरोध करनें पर तत्कालिन सरपंच द्वारा उन्हें मन्दिर विकास करनें, श्रधालुओं हेतु उचित लाईट पानी की व्यवस्था करनें का आष्वासन दिया गया। परन्तु 4-5 साल बाद मन्दिर पर वहीं पहले जैसी स्थिती हो गई। जैसे ही नये सरपंच आये, उन्होनें मन्दिर चढावे निलामी से प्राप्त आय को अपनी निजी आय मानकर उसे मनचाहें ढंग से अपना अपना वोट बैंक बनानें में खर्च करनें लगे। श्रधालुओं की सुविधाओं व उनकी समस्याओं से, मन्दिर के विकास से, मैया के धार्मिक प्रचार प्रसार से, उनकी सेवा पूजा से, धार्मिक आयोजनों से सरपंचों को कोई सम्बंध सरोकार नहीं रहा। एक आर टी आई द्वारा यह खुलासा हुआ है कि सन 1995 से सन 2015 तक मन्दिर के चढावे की निलामी से सरपंचों को कुल 3 करोङ 92 लाख रुपये की आय हुई जिसमें से इस अवधि में मन्दिर पर मात्र पांच लाख रुपये खर्च किये गये और वो भी सिर्फ दिखाये गये असल में दो लाख भी खर्च नहीं किये गये तथा उपरोक्त राषि में से 56 लाख रुपये का अभी तक ये पता नहीं हेै कि वो कहां गये।

महन्त श्री सुमेर सिंह जी व उनकी संस्था लगातार उपरोक्त राषि मन्दिर व श्रधालुओं के हित के लिए खर्च करवानें हेतु सरपंचों से बहस करते रहते थे और मैया की सेवा पूजा के साथ साथ अपनी अपनी नीजी आय से जितना हो सके उतना मन्दिर के विकास व श्रधालुओं की सेवा पूजा करते रहे। एक के बाद एक सरपंच बदलते रहे पर मन्दिर की व्यवस्था और अधिक खराब होती गई तो सन 2015 में महन्त जी नेें अपनी संस्था व मन्दिर के आसपास के गांवों के सैकङो ग्रामिणों के प्रस्ताव से देवस्थान विभाग में प्रन्यास हेतु मई 2015 में आवेदन किया। समस्त जरुरी प्रक्रियायों से गुजरकर 29.10.2015 को मन्दिर श्री देई माई कुठानियां धाम प्रन्यास का रजिस्ट्रेषन हुआ। परन्तु इसके बाद भी तत्कालिन सरपंच नें मन्दिर चढावा निलामी बंद नहीं की। माननीय उच्च न्यायालय जयपुर में मामला गया व वहां से चढावे लेनें का अधिकार 1959 के एक्ट के आधार पर पहले देवस्थान के सक्षम अधिकारीयों द्वारा तय करवानें के आदेष द्वारा फिर से देवस्थान विभाग में अपील की गई। देवस्थान विभाग द्वारा सरपंच को मन्दिर के चढावे कि की जा रही निलामी को अवैध बताया व आगे से चढावा निलामी नहीं करनें के लिए सरपंच व सचिव को पाबंद कर दिया गया व पिछे की निलामी राषि को वापिस प्राप्त करनें की कार्यवाही करनें के आदेष दिये। फरवरी 2018 में मन्दिर के चढावे को रजि. प्रन्यास के बैंक खाते में जमा करवानें के आदेष हुए। तब से देवस्थान के अधिकारीयों द्वारा मन्दिर की भेंट पेटियां खोली जाकर राषि गणना कर प्रन्यास के बैंक खाते में जमा करवाई जाती है। यह राषि मन्दिर विकास, जिर्णोध्दार, भोग राग, धार्मिक कार्यों, जीव मात्र के कल्याण हेतु सार्वजनिक रुप से किये गये कार्यो, षिक्षा, स्वास्थ्य व श्रधालुओं की सुविधाओं हेतु व्यय की जा रही है। जिसकी हर वर्ष की आडिट होती है व आडिट रिर्पोट देवस्थान विभाग को पेष की जाती है।